समुद्र मंथन (सागर मंथन ) की सम्पूर्ण कथा
समुद्र मंथन (सागर मंथन ) की सम्पूर्ण कथा
एक बार की बात है ऋषि दुर्वासा भगवान शिव के दर्शन के लिए कैलास जा रहे थे | रास्ते में उन्हें इंद्र देव मिले | इंद्र देव ने ऋषि दुर्वासा को श्रद्धा पूर्ण प्रणाम किया ऋषि दुर्वासा ने आशीर्वाद देकर भगवान विष्णु का पारिजात पुष्प प्रदान किया | इंद्र को आपने इन्द्रासन का उस समय बहुत घमण्ड था तो उसने उस पुष्प को लेकर ऐरावत हाथी के मस्तक पर रख दिया | इंद्र के ऐसा करते ही ऐरावत हाथी में भगवान विष्णु के सामान तेज उत्पन हो गया और वह इंद्र का त्याग कर वन में चला गया |
दुर्वासा ऋषि ने इंद्र को पुष्प दिया लेकिन इंद्र ने अपने घमण्ड के वश उनका अपमान की दुर्वासा ऋषि को अत्यंत क्रोध आया और उन्होंने इंद्र को श्री (लक्ष्मी) हिन का श्राप दे दिया | दुर्वासा ऋषि के श्राप फलस्वरूप लक्ष्मी माता उसी समय अद्रश्य हो गई | लक्ष्मी माता के अद्रश्य होते ही इन्द्र व सभी देवगण श्री हिन व बल हिन हो गे | उनको बल हिन जानकर देत्यो ने स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया और स्वर्ग पर आपना अधिकार कर लिया|
ब्रम्हा जी ने कहा हम सरे देवगण को भगवान विष्णु की शरण जाकर विनती करनी चाहिए | फिर ब्रम्हा जी और देवराज इंद्र सरे देवगण के साथ भगवान विष्णु के पास गए | भगवान विष्णु सिरसागर में ध्यान मग्न थे वहा सरे देवताओं ने भगवान विष्णु की स्तुति की और श्री नारायण जी से प्राथना की हे परमब्रम्ह भगवान नारायण दुर्वासा के श्राप के कारण हम देवगण लक्ष्मी हिन व निर्बल हो गए जिसके कारण दैत्यों ने आक्रमण कर दिया और हमें परास्त कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया | हे भगवान विष्णु अब आप ही हमें इस संकट से उभर सकते है |
भगवान विष्णु त्रिकालदर्शी है उन्होंने देवगण के मन का हल जान कर बोले - हे देवराज इन्द्र जो बात में तुमसे बोलूंगा उसे ध्यान से सुनो क्योकि तुम्हारे और देवगण के लिए ये ही एक मात्रा रास्ता है तुम लोग अभी दैत्यों से युद्ध न करके उनसे संधि करो | सागर के अंदर बहुत दिव्या पदार्थ मौजूद है तुम दैत्यों की सहायता से सागर मंथन करो जिसे तुम्हे लक्ष्मी जी के साथ साथ अमृत भी प्राप्त होगा जिसे पिने वाला व्यक्ति मौत को भी मत दे देता है इसलिए दैत्यों से संधि करो कूटनीति भी यही कहती है की जरुरत पड़ने पर शत्रु को आपने मित्र बना लो वह जो भी शर्त रखे तुम उन्हें स्वकर कर लेना ध्यान रखना की शांति से बड़े बड़े कार्य बन जाते है और क्रोध करने से काम बिगड़ जाते है |
भगवान विष्णु के परामर्श पर देवराज इंद्र और देवगण दैत्यराज बलि के पास संधि करने गए और सागर मंथन का प्रस्ताव बलि के सामने रखा दैत्यराज बलि ने कह - की सागर मंथन से जो भी पदार्थ निकलेगा देव और दानव में आधा आधा तो हम त्यार है | राजा बलि बात सुनकर इंद्रदेव उनकी शर्तो पर तैयार हो गए |
फिर सागर मंथन प्रारम्भ हुआ भगवान कच्छप के एक लाख चौड़ी योजन पीठ पर मंदराचल पर्वत घूमने लगे | फिर सागर मंथन में सर्वप्रथम हलाहल विष निकला | उस विष की ज्वाला से देव और दानव जलने लगे | फिर सभी ने मिलकर भगवान शिव से प्राथना की उन की प्राथना सुनकर भगवान शिव ने विष को पी गये किन्तु आपने कण्ठ से निचे उतरने नहीं दिया जिससे भगवान शिव का कण्ठ नीला हो गया | इस लिया महादेव भगवान शिव को नीलकण्ठ भी कहा जाता हैं
विष को भगवान शंकर के विषपान करने के बाद सागरमंथन आरंभ हुआ और दूसरा रत्न कामधेनु गाय निकली उसे ऋषियों ने रख लिया | फिर उच्चैश्रवा घोडा निकला उसे दैत्य राज बलि ने रख लिया उस के बाद ऐरावत हाथी निकला उसे देवराज इंद्र ने रख लिया | फिर कौस्तुभ मणि समुद्र से निकली उसे भगवान विष्णु ने रखा फिर कल्पवृक्ष निकला और रम्भा नमक अप्सरा निकली इन दोनों को देवलोक में रखा गया आगे सागर मंथन से माता महालक्ष्मी जी निकली इसे स्वम भगवान विष्णु ने वर लिया उसके बाद कन्या के रूप में वारुणी निकली जिसे असुरों ने ग्रहण किया फिर एक के बाद एक चन्द्रमा , पारिजात और शंख निकले | अंत में धन्वंतरि वैद्य स्वमं अमृत का कलश ले कर स्वम प्रकट हुये | ये देख दानवों ने धन्वतरि के हाथो से अमृत कलश छीन लिया और आपस में ही लड़ने लगे | देवताओ के पास दुर्वासा ऋषि के श्राव के कारण शक्ति नहीं थी इसलिए वह खड़े-खड़े देखते रहे देवताओंको निराशा देख भगवान विष्णु ने तत्काल मोहिनी रूप धारण किया और असुरो के पास जा पहुंचे | उस विश्व मोहिनी को देखकर असुर तथा देवताओं की तो बात क्या स्वम भगवान शंकर भी मोहित हो कर उन्हें बार-बार देखने लगे | जब असुरो ने विश्वसुंदरी को अपनी और आते देखा तो वे सारा झगड़ा भूल गए और कामुख होकर एकटक देखने लगे |
असुर मोहिनी से बोले हे सुन्दरी तुम कोण हो लगता है तुम हमारे झगडे को शांत करने आई हो| इस पर विश्वमोहिनी ने उत्तर दिया- हे देव और दानव आप दोनों ही महर्षि कश्यप जी के पुत्र हो इसी कारण आप भाई-भाई हो फिर भी आपस में लड़ते हो में तो स्वेच्छाचारिणी स्त्री हूँ | बुध्दिमान लोग ऐसी स्त्री पर कभी विश्वाश नहीं करते हो इससे अच्छ हे की तुम लोग आपस में स्वयं अमृतपान कर लो | विश्वमोहिनी के ऐसे वचन सुन कर दानव और राक्षस को उस पर और विश्वास हो गया और बोले- हे सुन्दरी हमें तुम पर पूर्ण विश्वास है तुम जिश प्रकार से अमृत बटोगी हमें मंजूर है तुम जिसे पिलाना चाहो उसे पिलादो जिसे नहीं पिलाना है उसे मत पिलाओ हम उसी प्रकार अमृतपान करेंगे तुम ये अमृत कलस ले लो और हमें अमृत पान कराओ| मोहिनी ने कहा – ठीक है जेसा तुम चाहो| फिर देवता और दानव को अलग-अलग पंक्ति में बेठने को कहा|
इस तरह भगवान विष्णु ने देवताओ को अमृतपान कराया फिर अंतर्ध्यान हो गये| सरे राक्षस मदिरा के नसे में मदहोस थे जब वह होश में आये तो बहुत क्रोधित हुये और देवताओं से भीषण युध्द शुरू हुआ| इस भीषण युध्द को देवासुर संग्राम के नाम से जाना जाता है| अमृत पिने के कारण देवता बहुत बलशाली हो गये थे जिससे उन्होंने असुरो पर विजय प्राप्त हुई|
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