दानवीर कर्ण की सम्पूर्ण जीवन की कथा
दानवीर कर्ण की सम्पूर्ण जीवन की कथा
कर्ण कुंती का पहला पुत्र था | कर्ण का कुंती के विवाह के पूर्व ही जन्म हो गया था | लोग-लाज के कारण कुंती ने कर्ण को एक संदूक में रख कर गंगा नदी में बहा दिया था | कर्ण के जन्म की कथा बहुत ही विचित्र कथा है आइये जानते है-
कुंती के जन्म की
कथा
यदुवंश के प्रसिध्द राजा शूरसेन थे जो भगवान श्री कृष्ण के पितामह(दादा) थे शूरसेन के फुफेरे भाई कुंतीभोज की कोई संतान नहीं थी, इसलिए शूरसेन ने कुंतीभोज को वचन दिया की वह आपनी पहली संतान को उन्हें दे देंगे इसलिए शूरसेन ने कुंती के जन्म के बाद कुंती को कुंतीभोज को दे दिया|
कर्ण के जन्म की कथा
एक बार राजा कुंतीभोज के यहाँ दुर्वासा ऋषि पधारे थे कुंती ने उनका बड़ा सेवा-सत्कार किया वह जब तक वहा रहे कुंती ने
उनकी बहुत सेवा की कुंती की इस नि:स्वार्थ सेवा से ऋषि दुर्वासा बहुत ही खुश हुए और उन्होंने प्रसन्न होकर कुंती को वरदान स्वरुप एक मंत्र दिता और कहा की तुम जिस भी देवता का आवाहन करोगी वह देवता तुरंत तुम्हारे पास आ जायगें और आपने अंश से एक तेजस्वी पुत्र तुम्हे देंगे|
जब दुर्वासा ऋषि वहा से चले गये तो कुंत ने ऋषि दुर्वासा व्दारा दिए गये मंत्र को नासमझी में परिक्षण करने लगी और सूर्यदेवता का आवाहन किया सूर्यदेवता तुरंत वहा प्रगट हुए और एक पुत्र को कुंती को दे दिया | कुंती ने सूर्य देवता से कहा की में आभी कुमारी हूँ इसलिए इस पुत्र को नही ले सकती किन्तु सूर्य देव ने कहा हे देवी मेरा आना विफल नहीं हो सकता इसलिए में तुन्हें एक पराक्रमी पुत्र प्रदान करता हूँ | इतना कह कर सूर्य देव वहा से अंतर्ध्यान हो गये| फिर कुंती ने लोक-लजा के कारण
उस पुत्र को एक संदूक में रख कर गंगा नदी में बहा दिया |
वह बालक गंगा नदी में बह रहा था उसी समय अधिरथ नाम का एक सारथि (जो
की हस्तिनापुर में धृष्टराष्ट का सारथि
था) गंगा नदी में आपने घोड़े जल पिला रहा
था तभी वह बालक वहा से बह रहा था अधिरथ ने उस बालक को देखा और उस बालक को उठा कर
अपने घर ले गया| और उसकी पत्नी बताया वह दोनों निःसंतान थे इस लिय वह उसका
लालन-पालन करने लगे कर्ण को सूर्य देव के आशीर्वाद से बचपन से ही तेजस्वी कवच उसके
सिने से ओर कुंडल कान में थे उस बालक के कान बहुत सुन्दर थे इसलिए उस बालक का नाम
कर्ण रखा गया | धीरे-धीरे कर्ण बड़ा होने लगा|
कर्ण की शिक्षा
कर्ण की आयु शिक्षा
के योग हो गई | अधिरथ द्रोणनाचर्या को जानते थे तो वह उस के पास कर्ण को ले गया था
और द्रोणनाचर्या को कर्ण को आपना शिष्य बनाने को कहा | किन्तु द्रोणनाचर्या ने कर्ण को शिक्षा देने से मना और कहा की यहाँ
गुरुकुल केवल राजकुमारों के लिए है तुम्हारे जेसे सूत के पुत्र को यहाँ शिक्षा
नहीं मिल सकती| कर्ण ने द्रोणनाचर्या से कहा
की “शिक्षा भी कही किसी का धर्म और जाति देखती है अश्वस्थामा कोण से राजकुल का है
और नहीं वह क्षत्रिय है फिर भी उसे शिक्षा दी जा रही है ये कह कर कर्ण वहा से चले
जाते है |
वहा से जाने के बाद कर्ण को परशुराम जी ने सूद्र जन कर शिक्षा दी और संपूर्ण विद्या दी और धनुर विद्या में पारंगत किया | एक दिन परशुराम जी कर्ण की गोद में सर रख कर सो रहे थे उसी समय एक बिच्छु कर्ण के पास आ कर कर्ण को डंक ही डंक मरने लगा कर्ण को बहुत दर्द हो रहा था किन्तु कर्ण परशुराम जी की नींद ना टुडे इस लिय वह चुपचाप बैठे रहे लेकिन कर्ण का खून बह रहा था खून बहते-बहते परशुराम जी के निचे पहुँच गया और परशुराम जी की नींद टूट गे फिर परशुराम ने कर्ण से कह की तुम्हे दर्द नहीं हुआ कर्ण ने जबाब दिया दर्द तो हुआ किन्तु आप की नींद ना टूटे इस लिए नहीं उठा | परशुराम फिर समझ गये की कर्ण कोई सूद्र नहीं था वह क्षत्रिय है ये कोई क्षत्रिय ही कर सकता था परशुराम बहुत क्रोधित हुए और कर्ण को श्राप दिया की जरुरत के समय मेरी शिक्षा तुम भूल जाओगे| कर्ण खुद नहीं जनता था की वह किस वंस का था उसने परशुराम जी से क्षमा मांगी और काना की मेरे स्थान पर आपका कोई और शिष्य होया तो वह भी यही करता| परशुराम जी समझ गे की मुझ से अनजाने में क्रोधवस श्राप देना पड़ा वह श्राप वापस तो नहीं ले सकते थे किन्तु उन्होंने कर्ण को वरदान स्वरुप आपना धनुष-बाड दिया|
फिर कर्ण आगे की
शिक्षा के लिए आश्रम आ गये और परशुराम उन्हें शब्द भेदी वाड का आभ्यास करा रहे थे
कर्ण बहुत आच्चे से शिख रहे थे | एक दिन एक गाय का बछड़ा झाड़ियों में विचार रहा थे
कर्ण ने सोचा कोई वन जिव है तो कर्ण ने शब्द भेदी वाड मार दिया बछड़ा वाही मर गया
बछड़े का स्वामी एक ब्राह्मण था उसने कर्ण को श्राप दिया की जिस प्रकार तुमे एक
निःसहाय जिव को मारा उसी प्रकार तुम्हारी मृतु भी हो जाएगी जिस समय तुम्हाती मृतु
होगी तुम भी निःसहाय होंगे| कर्ण ने ख़ुशी श्राप को स्वाकार कर लिया फिर वह शिक्षा
समाप्त कर हस्तिनापुर लोट आया
| इस प्रकार कर्ण परसुराम जी से शिक्षा ग्रहण ही कर परशुराम का पराक्रमी शिष्य था
|
कर्ण और दुर्योधन की
मित्रता
जब पांडव और कोराव
गुरुकुल से शिक्षा कर के लोटे तो गुरु द्रोणनाचर्या ने उनके पराक्रम और वीर कौशल का प्रदर्शन के लिए हस्तानापुर
में एक आयोजन करबाया | वहा पूरा हस्तानापुर एकत्रित हो गया कर्ण भी वहा आया जब
अर्जुन ने आपना पराक्रम दिखाया हो अर्जुन को धनुर-विद्या का विशेष खिताव की घोषणा
की| इस का विरोध में कर्ण ने अर्जुन को द्वंद युद्ध के लिए ललकारा | कृपाचार्य ने
युद्ध की अनुमति नहीं और कर्ण के वंश और राज्य के बारे में पूछा | कर्ण के पास
इसका कोई जबाब ना था कृपाचार्य ने कहा की एक राजकुमार को दूसरा राजकुमार ही चुनोती
दे सकता है| दुर्योधन तुरंत उठा और कर्ण को अंग देश का राजा घोषित कर दिया ताकि
कर्ण अर्जुन से युद्ध योग हो जाए | कर्ण ने दुर्योधन से इस उपकार का प्रयोजन पूछा
तो उसने जबाब दिया की वह केवल मित्रता करना चाहता है| उस के बाद कर्ण दुर्योधन के
बिच में बहुत घनिष्ट मित्रता हो गई| कर्ण दुर्योधन के इस उकार को जीवन भर नहीं
भुला इस के लिय वह दुर्योधन के अच्छे व भूरे दोनों कामो में आपनी जन नौचावर करने
के लिय सदेव तैयार रहता था|
कर्ण के विवाह की कहानी
जब
द्रोपती का स्वम्वर हो रहा तब बड़े बड़े राजाओ ने उसमे भाग लिया कर्ण अंग देश का
राजा था तो उसने भी द्रोपती से विवाह की इच्छा से उसमे भाग लिया किन्तु सूत पुत्र
होने के कारण द्रोपती ने उसका अपमान किया और विवाह करने से इंकार किया | इस अपमान
के कारण कर्ण बहुत दुखी हुआ|
बाद
में कर्ण के दो कन्या के साथ विवाह हुए कर्ण की पहली पत्नी का नाम रुषाली था जो की
एक सूत पुत्री थी पिता की आज्ञा को मान कर उन्होंने यह विवाह किया कर्ण की दूसरी पत्नी का नाम सुप्रिया थी |} जो राजा
चित्रबत की बेटी थी | कर्ण और दोनों पत्नी से 9 पुत्र थे | महाभारत के युध में
कर्ण के 8 पुत्र मारे गये थे अंत में एक पुत्र
जीवित बचा जिसका नाम वृषकेतु था | जब पांडवो को कर्ण के बारे में सच्चाई का
पता चला की वह उनका ही भाई है तब युधिष्ठिर ने वृषकेतु को इन्द्रप्रस्त का राज दे
दिया |
दानवीर
कर्ण के दान की कथा
भगवान कृष्ण जानते थे कर्ण से बड़ा दानी कोई
नहीं है और यदि धर्म की स्थापना करना है तो उनके रास्ते में कर्ण ही सबसे बड़ी बाधा
है क्योकि कर्ण अधर्मियों के साथ था किन्तु कर्ण ने अपने जीवन में कभी अधर्म नहीं
किया| कृष्ण भगवान जानते की कर्ण के पास जब तक कवच और कुंडल है तब तक उस पर विजय
पाना असभव है और उधर इंद्र की भी यही चिंता अर्जुन के लिए थी क्योकि अर्जुन उनका
पुत्र था भगवान कृष्ण उर इंद्र दोनों जानते थे की जब तक कर्ण के पास कवच और कुंडल
है जब तक उसे युद्ध में हराना असंभव है | फिर भगवान कृष्ण ने इंद्र को बुलाकर कहा
की कर्ण रोज सूर्य पूजा करता है उस समय यदि कोई उस से दान मांगता है तो वह जरुर
दान करता है तो है इंद्र तुम जाकर कर्ण से
उसके कवच और कुंडल मांग लो फिर इंद्र एक ब्राह्मण के रूप में कर्ण के पास पहोचे
कर्ण ने कहा मानगो हे ब्राह्मण देव तो इंद्र ने कहा नहीं पहले आप को वचन देना
होगा| कर्ण ने जल हाथ में लेकर वचन दिया तो इंद्र ने कहा हे राजन मुझे तुम्हेरे
कवच्ग और कुंडल दान स्वरुप चाहियें | कर्ण ने बिना देरी किये आपने चाकू से खुरोद
कर आपने सिने से कवच को आलग किया और कानो से कुंडल खीच कर निकले और इंद्र को दान
में दे दिए| तब इंद्र आपने स्वरुप में आये और कर्ण बहुत सरे आस्त- सत्र दिये|
कुंती को दिया वचन
भगवान कृष्ण ने कुंती को बता दिया की कर्ण उनका पहला पुत्र है तो कुंती से रह नहीं गया और कर्ण से मिलने पहोच गई| उधर कर्ण को भी पता चल गया थी की वह भी कुंती का पुत्र है| कुंती ने कर्ण से पांडव की और से युध्द करने का आग्रह किया किन्तु कर्ण नहीं मना उसने कहा की जो लोग मुझ पर विश्वास करते है में उनके साथ विश्वासघात नहीं करूँगा| फिर कुंती ने कहा की तू आपने भाइयों का ही वध करोगे तो कर्ण ने कुंती को वचन दिया की वह अर्जुन के आलबा किसी पांडव पर शास्त्र नहीं उठाऊंगा| और उसने यह भी कहा की युध्द के बाद भी पांडव पांच ही रहेंगे यदि में मारा तो अर्जुन सहित पांच आर यही अर्जुन मारा तो मेरे सहित पांच | इतना कह कर कर्ण उनसे पैर छू का जाने को कहते है और कुंती वहा से चली जाति है |
कर्ण की मृत्यु कैसें
हुई
कर्ण एक महानायक था इसे हराना किसी के बस की बात नहीं था | महाभारत का युध्द पुरे 18 दिन चला था | कौरव एक
के बाद एक वीर खोते जा रहे थे और 17वे दिन उन्होंने कर्ण को भी खो दिया था| कर्ण महाभारत के युध्द वीरता से लड़ लेकिन परिस्थिति कुछ ऐसी बनी की धरती आपने ही आप फट गई और कर्ण के रथ का पहिया धरती में पड़ी दरार में फस गया| जब कर्ण रथ का पहिया निकालने जमीन पर रथ से उतर कर रथ का पहिया को धक्का लगाने लगा तो भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा की-हे पर्थ कर्ण पर तीर चलाओ और अर्जुन ने कर्ण पर आपने दिव्यास्त्र मारे जिससे कर्ण की मृत्यु हो जरी है और कर्ण वीरगति को प्राप्त हो जाता है |
कर्ण की मौत के पीछे बहुत से कारण थे जिसमे से
कुछ इस प्रकार है-
कर्ण की मौत के कारण-
आपने आप की पहचान से अंजन-कर्ण को नहीं पता था
की वह किन है वो कुंती और सूर्य देव के पुत्र थे लेकिन उसे एक सूत ने पला था जिसके
के कारण वह आपने आप को एक सूत पुत्र समझता था यदि वह कुंती उसकी माता है ये बचपन
से जनता तो वे पांडवो में गिने जाते और पांडवो के साथ मिलकर कौरवों से लड़ते |
ब्राह्मण का श्राप कर्ण
के रथ से एक गाय की बछिया की मृतु हो गई थी तो बछिया के
स्वामी जो की एक ब्राह्मण था ने कर्ण को श्राप दिया था की वह जिस रथ की तेज गति के
कारण तुमने इस बछिय का वध किया है वही रथ का पहिया निर्णायक युध्द में में धरती में
फस जायेगा और उसी के कारण तुम्हारीं मौत हो जाएगी| महाभरत के युध्द के दौरान यही हुआ|
दिव्यास्त्र का प्रयोग का चेयन गलत समय करना जब कर्ण ने इंद्र को कवच और कुंडल दान किये तो
इंद्र ने कर्ण को एक दिव्यास्त्र दिया और कहा की ये अस्त्र तू जिस पर भी प्रहार करोंगे उसकी मृत्यु हो जाएगी किन्तु इस अस्त्र का प्रयोग तुम बस एक ही बार कर सकते हो| तो कर्ण ने वह अस्त्र का प्रयोग अर्जुन पे ना करके घटोत्कच पर किया यदि कर्ण वह अस्त्र का प्रयोग घटोत्कच के स्थान पर अर्जुन पर करता तो कर्ण की मौत उस समय नही होती|
कर्ण का अजय कवच-कुंडल दान
करना कर्ण एक दान वीर था जब श्री कृष्ण की आज्ञा से इंद्र
ने कर्ण से दान में कवच और कुंडल मांगे तो कर्ण ने उस अजय कवच और कुंडल का दान तुरंत
बिना सोचे समझे कर दिया| और युध्द में परजीय हुए यह उनकी मौत का मुख्य कारण है|
स्वयं भगवान श्री कृष्ण कृष्ण भगवान ने इंद्र को वचन दिया था कि वह युद्ध में अर्जुन का साथ देंगे और उसकी रक्षा करेंगे कृष्ण भगवान ने अर्जुन की रक्षा कई बार युद्ध में की करण की मौत का यह भी एक कारण है
धर्म के स्थान पर अधर्म का साथ देना कर्ण पुत्र पुत्र होने के कारण बहुत अपमानित होते थे किंतु दुर्योधन ने इसका फायदा उठाकर उसे दोस्ती की और उसे अधर्म के रास्ते पर ले गया करण सब जानते हुए भी उसने अधर्म का साथ दिया
अंतिम समय पर सत्य का ज्ञान यदि कर्ण
को यदि पहले ज्ञान होता की
वह भी कुंती का पुत्र है तो वह नहीं मारा जाता अंतिम समय में जब करण को पता चला कि अर्जुन भी उसका उसका भाई है
और वह भी एक पांडव है| इसी करना कर्ण अर्जुन पर पूरी शक्ति से तीर नहीं मर रहे थे|
परशुराम जी का श्राप कर्ण ने परशुराम जी को आपनी सच्चाई नहीं बताई इसा परशुराम जी को लगा जी के क्रोध में
उन्होंने कर्ण को श्राप दिया कि मेरे द्वारा दी गई विद्या जरूरत के समय तुम भूल जाओगे और कर्ण युद्ध के समय सभी मंत्र भूल जाते हैं और उनकी मृत्यु हो जाती है
दोस्तों कर्ण जैसे महानायक, महापुरुष, महादानी और महान चरित्र वाला व्यक्ति धरती पर दूसरा नहीं जन्मा कर्ण की मौत यदि कर्ण नहीं चाहते तो उन्हें कोई भी नहीं मार पाता भगवान कृष्ण भी कर्ण के प्रति बहुत स्नेह रखते थे किंतु धर्म की स्थापना के कारण कर्ण को मरना जरूरी था कर्ण आज भी वैकुंट लोक में निवास करते हैं| कर्ण आज भी भगवान के नजरो में सबसे बड़ा दानी है|
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